कांवड़ यात्रा : जानें कांवड़ यात्रा का सही इतिहास, महत्व तथा इस यात्रा के नियमों के बारे में !
14 जुलाई से सावन माह की शुरुआत हो चुकी है। यह महीना भगवान शिव की भक्ति का माना जाता है। इस माह में शिव भक्त भगवान भोलेनाथ का आशीर्वाद पाने के लिए व्रत-उपवास तथा कथा आदि करते हैं। माना जाता है कि इस माह में जो भगवान् शिव का आशीर्वाद प्राप्त कर लेता है। उसकी सभी कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए अनेक लोग कांवड़ यात्रा पर जाते हैं तथा यात्रा के अंत में भगवान शिव का जलाभिषेक करते हैं। ऐसे में मन में कई प्रश्न आते हैं जैसे – कांवड़ यात्रा का प्रारंभ कब से हुआ, इसके नियम क्या हैं, इसका महत्व क्या है आदि आदि। आपके इस प्रकार के सभी प्रश्नों का निदान हमारे इस लेख में आपको मिलेगा। यहां हम आपको पौराणिक तथा धार्मिक ग्रंथों के संदर्भ से संपूर्ण कांवड़ यात्रा के बारे में विस्तार से बता रहें हैं।
क्या होती है कांवड़ यात्रा ?
सबसे पहले हम आपको कांवड़ यात्रा के संदर्भ में बताते हैं कि कांवड़ यात्रा किस प्रकार की यात्रा को कहा जाता है। इस बारे में धार्मिक ग्रंथों कई परिभाषाएं तथा व्याख्याएं हैं। लेकिन सभी को एक साथ रखने पर यह तथ्य सामने आता है कि “भगवान शिव के ज्योतिर्लिंग पर गंगा जल चढाने के लिए की जाने वाली यात्रा ही कांवड़ यात्रा कहलाती है।” इस यात्रा में शिव भक्त पैदल अवस्था में कंधे पर गंगा जल रख कर अपने अपने अभिषेक स्थल पर जाते हैं। मान्यता है कि कांवड़ यात्रा करने वाले भक्तों को अश्वमेघ यज्ञ का पुण्य मिलता है।
कांवड़ यात्रा की ऐतिहासिक मान्यताएं
पौराणिक ग्रंथों में कांवड़ यात्रा के संबंध में दो प्रकार की ऐतिहासिक कथाएं मिलती हैं। पहली कथा भगवान शिव के परम भक्त तथा शिष्य ऋषि पशुराम की है। इस कथा के अनुसार पहली बार सावन माह में ऋषि परशुराम ने ही भगवान शिव को कांवड़ चढ़ाई थी। इस कांवड़ यात्रा के लिए उन्होंने उत्तर प्रदेश के गढ़ मुक्तेश्वर धाम से गंगा जल भरा था तथा जिला मेरठ के बागपत क्षेत्र के पुरा महादेव नामक मंदिर में अभिषेक किया था। यह मंदिर आज भी स्थित है। इस पर आज भी शिव भक्त जल से अभिषेक करते हैं।
एक दूसरी कथा भी पौराणिक ग्रंथों से प्राप्त होती है। इस कथा के अनुसार श्रवण कुमार ने अपने माता पिता की तीर्थ यात्रा की इच्छा को पूरी करने के लिए उनको कांवड़ में बैठा कर हरिद्वार की यात्रा कराई थी। यहीं से उन्होंने जल भरा था तथा शिवलिंग पर अभिषेक किया था। मान्यता है कि उस समय से ही कांवड़ यात्रा की शुरुआत हुई थी। वर्तमान समय के अनुसार सन 1960 से कांवड़ यात्रा सामने आई है। इस यात्रा में पुरुषों के साथ स्त्रियां भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती हैं।
कांवड़ यात्रा के लाभ
कांवड़ यात्रा से कई प्रकार के लाभ प्राप्त होते हैं। कांवड़ यात्रा संतान बाधा को दूर करती है तथा संतान के विकास में सहायक होती है। इसके अलावा मानसिक प्रसन्नता के लिए भी कांवड़ यात्रा अत्यंत लाभप्रद होती है। आर्थिक समस्या तथा मनोरोग निवारण में भी कांवड़ यात्रा का सकारात्मक प्रभाव देखा गया है। कांवड़ यात्रा को बहुत से भक्त अपनी अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए भी करते हैं। इन सबसे अलग कुछ भक्त कांवड़ को बिना किसी फल की इच्छा के निःस्वार्थ भाव से भी लाते हैं।
कांवड़ की प्रमुख यात्राएं
गंगा जी से केदारनाथ तक कांवड़ यात्रा की जाती है। इसके अलावा नर्मदा से महाकाल ज्योतिर्लिंग तक भी कांवड़ यात्रा होती है। गोदावरी नदी से त्रियंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग तक भी भक्तगण कांवड़ लाते हैं। उत्तराखंड में गंगा जी से नीलकंठ महादेव तक भक्त कांवड़ यात्रा करते हैं। इसके अलावा गंगा जी से बैजनाथ धाम तक भी कांवड़ यात्रा की जाती है। ये प्रमुख कांवड़ यात्राएं कहलाती हैं। इन सबके अलावा असंख्य स्थानों से कांवड़ यात्रा भक्तगण करते हैं।
कितने प्रकार की होती है कांवड़
ऋषि परशुराम के समय से कांवड़ यात्रा पैदल ही निकलती थी। इसके बाद के समय में लोगों ने अपनी सुविधा के अनुसार कांवड़ यात्रा के लिए कई नियम बना दिए। वर्तमान समय में तीन प्रकार की कांवड़ भक्त लोग लाते हैं। इन तीनों का वर्णन नीचे किया जा रहा है।
1 . खड़ी कांवड़ –
यह सबसे कठोर नियम की कांवड़ होती है। इसमें जब भक्त जल भर कर कंधे पर उठा लेता है तो उस समय तक इस कांवड़ को भूमि पर नहीं रखा जाता, जब तक शिव अभिषेक न कर दिया जाए। यदि भक्त को भोजन करना होता है या कोई अन्य आवश्यक कार्य करना होता है तो इस कांवड़ को किसी अन्य कांवड़िएं को दे दिया जाता है। इसका अर्थ यह है की खड़ी कांवड़ दिन ओर रात्रि दोनों समय कंधे पर ही रहती है।
2 . झांकी वाली कांवड़ –
यह कांवड़ आजकल काफी ज्यादा प्रचलित है। इस कांवड़ में भक्तगण किसी ट्रैक्टर या गाड़ी आदि पर भगवान शिव की प्रतिमा को स्थापित कर यात्रा करते हैं। इस दौरान कई प्रकार के भजन आदि भी उक्त वाहन में चलते हैं। इस दौरान सभी भक्त नाचते गाते हुए इस यात्रा को पूरी करते हैं।
3 . डाक कांवड़ –
यह वैसे तो झांकी वाली कांवड़ जैसी ही होती है लेकिन इसमें एक अलग नियम होता है। वह यह कि जब मंदिर कि दूरी 24 घंटे या 36 घंटे रह जाती है तो भक्त गंगाजल लेकर दौड़ते हुए अभिषेक वाले मंदिर तक जाते हैं। हालांकि यह काफी कठिन होता है लेकिन डाक कांवड़ लाने वाले भक्त इसके लिए पहले से संकल्प लेते हैं।
कांवड़ यात्रा के नियम –
कांवड़ यात्रा के नियम काफी कठिन हैं। इस दौरान कांवड़ यात्रा करने वाले को एक सन्यासी की भांति ही रहना होता है। यदि कोई व्यक्ति इन नियमों को पूरा नहीं करता है तो उसकी कांवड़ यात्रा पूरी नहीं मानी जाती है। मान्यता है कि ऐसा करने पर उसको कई समस्याओं का सामना भी करना पड़ सकता है।
1 . कांवड़ यात्री को इस यात्रा के दौरान सन्यासी की भांति ही जीवन यापन करना होता है। इस दौरान यात्री को पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है। इसके अलावा वह स्नान करने के दौरान साबुन या शैम्पू का प्रयोग नहीं कर सकता है। यात्री अपने नाख़ून अथवा बालों को नहीं कटवा सकता है। यात्री को तन तथा मन दोनों से शुद्ध रहना होता है।
2 . यात्री को इस यात्रा में किसी भी प्रकार का नशा तथा मांसाहार करना निषेध माना जाता है।
3 . इस यात्रा में कांवड़ को भूमि पर नहीं रखना होता है। यदि किसी स्थान पर विश्राम करना होता है तो कांवड़ को किसी वृक्ष या स्टैंड पर ही रखना होता है। यदि किसी भी कारण से कांवड़ भूमि से स्पर्श कर जाती है तो भक्त को दोवारा से कांवड़ भर कर लानी होती है।
4 . वैसे तो कांवड़ को पैदल ही लाया जाता है लेकिन यदि भक्त किसी मनोकामना को लेकर यह यात्रा करता है तो उसको उसी हिसाब से इस यात्रा को संपन्न करना होता है।
कुल मिलकर यह कहा जा सकता है कि कांवड़ यात्रा एक अति प्राचीन धार्मिक यात्रा है। इसके अपने नियम है तथा इसमें नियमों का पालन करना अत्यंत आवश्यक है। यदि आप इस यात्रा को करते हैं तो इसका फल आपकी श्रद्धानुसार ही आपको मिलता है। भगवान भोलेनाथ आप पर अपनी कृपा बनाएं रखें। ऐसी हमारी ह्रदय से प्रार्थना है।