वट सावित्री व्रत का हिंदू धर्म में विशेष महत्व है। ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या पर प्रतिवर्ष यह व्रत रखा जाता है। इस व्रत में महिलाएं श्रृंगार कर पति की लंबी आयु के लिए बरगद वृक्ष का पूजन करती हैं। महिलाएं जहां इस व्रत को अखंड सौभाग्य तथा संतान के लिए रखती हैं वहीं कुमारी कन्याएं सुयोग्य वर की प्राप्ति व कुंडली में बने मांगलिक दोष को दूर करने के लिए इस व्रत को करती हैं। उत्तर भारत में यह व्रत ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाया जाता है तथा दक्षिण भारत में ज्येष्ठ माह की पूर्णिमा तिथि को इस व्रत को मनाया जाता है।
वट सावित्री व्रत की तिथि तथा पूजन मुहूर्त
ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि का आरंभ 18 मई, गुरूवार रात्रि 9 बजकर 42 मिनट पर होगा। इस तिथि का समापन 19 मई, शुक्रवार रात्रि 9 बजकर 28 मिनट पर होगा। अतः उदया तिथि के अनुसार यह व्रत 19 मई दिन शुक्रवार को रखा जाएगा। वट सावित्री व्रत का पूजन मुहूर्त शुक्रवार प्रातःकाल 7 बजकर 19 मिनट से प्रारंभ होगा तथा 10 बजकर 42 मिनट पर संपन्न होगा।
वट सावित्री व्रत की पूजन सामग्री
. इस व्रत के पूजन के लिए बांस का पंखा, लाल कलावा, मिट्टी का दीपक, खरबूजा, घी-धूप, अगरबत्ती।
. फूल, 14 गेंहू के आटे की बनी पुरिया, सोलह श्रृंगार की वस्तुएं, रोली, आटे से बने 14 गुलगुले।
. पान, नारियल, जल का लोटा, फल, सुपारी, भीगे हुए थोड़े से चने, बरगद की कोपल।
. स्टील की थाली, चावल, हल्दी तथा हल्दी का पानी, गाय का गोबर, मिठाई।
वट सावित्री व्रत की पूजन विधि
जिन महिलाओं को वट सावित्री व्रत करना है। वे व्रत वाले दिन प्रातःकाल जल्दी उठकर स्नान आदि कर शुद्ध वस्त्र धारण करें। इसके बाद में सभी पूजन सामग्रियों को थाली में सजाकर बरगद के वृक्ष के पास पहुंचें। जो महिलाएं पहली बार इस व्रत को कर रहीं हैं। वे कपड़े से बना दूल्हे-दुल्हन का जोड़ा साथ में रख कर इस व्रत को करें। यदि कपड़े का जोड़ा उपलब्ध न हो तो मिट्टी से बने दूल्हा दुल्हन का जोड़ा पूजन में रखा जा सकता है।
इसके बाद में बरगद के वृक्ष के नीचे सत्यवान तथा सावित्री की तस्वीर को रखें। फिर रोली, अक्षत, फल-फूल, मिष्ठान, कलावा आदि वस्तुओं को समर्पित करें। इसके उपरांत बांस के पंखें से हवा करें तथा बरगद के वृक्ष कि परिक्रमा करें। परिक्रमा कच्चे सूत का धागा लेकर वृक्ष की 5 से 7 परिक्रमा करें। फिर वृक्ष के नीचे बैठकर ही सत्यवान सावित्री की कथा को सुनें। अपने पति की लंबी आयु के लिए प्रार्थना करें तथा अंत में चने का प्रसाद बांटें।
वट सावित्री व्रत का महत्व
वट वृक्ष में ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश तीनों देवताओं का वास माना जाता है। अतः इस वृक्ष के पूजन का विशेष महत्व है। यही कारण है कि इस वृक्ष के नीचे कथा सुनने तथा पूजन करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। इस वृक्ष को ज्ञान, निर्वाण तथा जीवन का पूरक माना जाता है। अतः मान्यता है कि इस वृक्ष के नीचे पूजन करने से अखंड सौभाग्य की प्राप्ति होती है। जो स्त्री व्रत कर वट वृक्ष के नीचे पूजन करती है। उसको अखंड सौभाग्य का वर प्राप्त होता है। ऐसी महिला के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं तथा उसको सभी वैवाहिक कष्टों से मुक्ति मिल जाती है। इस व्रत को करने से पति पत्नी के बीच आपसी तालमेल तथा प्रेम बढ़ता है।
वट सावित्री व्रत की कथा
महाराज अश्वपति भद्र देश के राजा थे। उनको संतान सुख नहीं था अतः उन्होंने 18 वर्ष तक कठोर तप किया। जिसके फलस्वरूप देवी सावित्री ने उनको कन्या प्राप्ति का वरदान दिया। कन्या के उत्पन्न होने के बाद में उन्होंने कन्या का नाम भी सावित्री रखा। कन्या अत्यंत रूपवान थी परंतु योग्य वर न मिल पाने के कारण राजा अश्वपति दुःखी रहते थे। अंत में राजा ने कन्या को खुद ही वर चुनने के लिए कहा। सावित्री को जंगल में सत्यवान मिला ओर सावित्री ने उसको ही अपने पति के रूप में स्वीकार कर लिया।
इस घटना के बाद में देवर्षि नारद ने राजा अश्वपति को सत्यवान की अल्पायु के बारे में बताया। राजा तथा रानी दोनों ने मिलकर सावित्री को खूब समझाया। लेकिन सावित्री अपनी जिद से नहीं डिगी। जिसके बाद राजा रानी को उसकी जिद के आगे झुकना पड़ा। अंत में सावित्री तथा सत्यवान का विवाह हो गया। सत्यवान बड़े गुणवान तथा धर्मात्मा थे। वे अपने माता-पिता का बहुत ख्याल रखते थे। विवाह के बाद में सावित्री राजमहल छोड़कर जंगल की कुटिया में आ गई तथा सत्यवान के अंधे माता पिता की सेवा करने लगी।
धीरे धीरे सत्यवान की मृत्यु का दिन पास आने लगा। देवर्षि नारद ने सावित्री को पहले ही सत्यवान की मृत्यु के बारे में बता दिया था। सावित्री अधीर होने लगी। तीन पहले ही सावित्री ने उपवास शुरू कर दिया। सावित्री ने पहले पितरो का पूजन किया। अंतिम दिन जब सत्यवान जंगल से लकड़ियां काटने गया तो सावित्री भी उसके साथ गई। सत्यवान लकड़ियां काटने के लिए पेड़ पर चढ़े लेकिन सर चकराने के कारण नीचे उतर आये। सावित्री उनका सर अपनी गोद में रखकर सहलाने लगी। तब ही सावित्री ने देखा की यमराज उनके पति के प्राण लेकर जा रहें हैं। सावित्री भी उनके पीछे पीछे जाने लगी। यमराज ने सावित्री को बार बार मना किया लेकिन सावित्री ने कहा की जहां भी मेरे पति रहेंगे। मैं भी वहीं रहूंगी।
सावित्री को एक एक कर वरदान के रूप में यमराज ने उसके सास ससुर को आंखें दी, उसका खोया राज्य दिया लेकिन सावित्री यमराज के पीछे चलती रही। इसके उपरांत यमराज ने सावित्री को खुद ही सावित्री को वर मांगने को कहा। सावित्री ने 100 संताने तथा अखंड सौभाग्यवती का वरदान मांगा। यमराज ने बिना विचार किये वर दे दिया तथा आगे बढ़ने लगे। सावित्री ने यमराज को कहा कि प्रभू, मैं एक पतिव्रता स्त्री हूं ओर आपने ही मुझे 100 संताने होने का वरदान दिया है। इसके बाद यमराज को सत्यवान के प्राण छोड़ने पड़े। इसके उपरांत सावित्री उसी वट वृक्ष के पास आई। जहां सत्यवान ने अपने प्राण छोड़े थे। सत्यवान को जीवन मिला, उनके माता पिता को आंखे मिली तथा खोया राज्य मिला। इस प्रकार सभी लोग दीर्धकाल तक सुख भोगते रहें।
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